Arya Samaj Mandir-Arya Vivah 2020-09-11T05:15:09 Arya Samaj Mandir-Arya Vivah ओ३म्“ऋषि दयानन्द ने विश्व कल्याण की भावना से वेदों का प्रचार किया”============ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स् ओ३म्
“ऋषि दयानन्द ने विश्व कल्याण की भावना से वेदों का प्रचार किया”
============
ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना किसी नवीन मत-मतान्तर के प्रचार अथवा प्राचीन वैदिक धर्म के उद्धार के लिये ही नहीं की थी अपितु उन्होंने वेदों का जो पुनरुद्धार व प्रचार किया उसका उद्देश्य विश्व का कल्याण करना था। यह तथ्य उनके सम्पूर्ण जीवन व कार्यों पर दृष्टि डालने व मूल्याकंन करने पर विदित होता है। संसार ने ऋषि दयानन्द की भावनाओं को यथार्थरूप में जानने का प्रयत्न नहीं किया। इसके पीछे उनका अपने हित व अहितों से बंधा होना रहा है। सत्य का ग्रहण करने के लिए असत्य का त्याग करना पड़ता है। विद्या को वही मनुष्य व समुदाय प्राप्त हो सकते हैं जो अविद्या का त्याग करते हैं। इसी प्रकार वेदज्ञान का लाभ प्राप्त करने के लिये अपनी वेद विरुद्ध मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित प्रचलित अविद्यायुक्त संस्कार-कुसंस्कारों का त्याग करना होता है। यह कार्य सरल नहीं होता। इसके लिये मनुष्य व उसके माता-पिता सहित आचार्यों को प्रयत्न करना पड़ता है, साथ ही मनुष्य को स्वयं भी पक्षपातरहित होकर सत्य ग्रन्थों व साहित्य का स्वाध्याय व अध्ययन करना होता है। स्वाध्याय के लिये शीर्ष स्थान चार वेद प्रतिष्ठित हैं। वेदों का ज्ञान परमात्मा से प्राप्त ज्ञान है जो सृष्टि की उत्पत्ति के बाद अमैथुनी सृष्टि होने पर परमात्मा से प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को प्राप्त हुआ था। परमात्मा पक्षपात रहित, न्यायकारी, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि तथा नित्य सत्ता है। यह परमात्मा सभी मनुष्यों का एकमात्र परमात्मा एव उपासनीय है। इसको जानने, प्राप्त करने व साक्षात्कार करने के लिये किसी भी मनुष्य का सत्यनिष्ठ होने सहित दुर्गुणों व पक्षपात का त्याग करना वाला होना आवश्यक है। सभी मनुष्य ऐसे नहीं होते हैं और इसके लिये प्रयत्न भी नहीं करते। इस कारण सभी मनुष्य ईश्वर के सच्चे स्वरूप को प्राप्त नहीं हो पाते तथा उनकी आत्मा में सन्मार्ग पर चलने की ईश्वरवीय प्रेरणाओं भी प्राप्त नहीं हो पाती। ऋषि दयानन्द वैदिक विद्वान तथा ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए समाधि को सिद्ध योगी थे। वह असत्य व स्वमत के विचारों का पक्षपात छोड़कर ही इन उपलब्धियों को प्राप्त हो सके थे। जो मनुष्य असत्य व अविद्या को छोड़ता है वह निश्चय ही सत्य व विद्या को प्राप्त होता है। इसके लिये हमें सत्य व वेद के मार्ग पर चलना होता है। ऋषि दयानन्द के बाद आर्यसमाज को स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं. लेखराम आर्यमुसाफिर, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी आदि अनेक महापुरुष मिले जो ऋषि दयानन्द के अनुसार ही असत्य का त्याग तथा सत्य व विद्या को प्राप्त किये हुए सच्चे मानव व महापुरुष थे। हमें भी इनके जीवन से शिक्षा लेकर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करना चाहिये। वेदों व वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये। ऐसा करने से ही हम ईश्वर व अपनी आत्मा को प्राप्त होकर आत्मोन्नति कर समाज व विश्व का उपकार कर सकते हैं और अपने जन्म को सफल कर सकते हैं।
ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में संसार अविद्या व अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। किसी आचार्य, मत व सम्प्रदाय का ध्यान इनको दूर करने में नहीं जा रहा था। ऋषि दयानन्द को 14 वर्ष की आयु में मूर्तिपूजा में प्रचलित अन्धविश्वास को जानने से बोध हुआ था कि मूर्तिपूजा की विधि ईश्वर उपासना की सत्य व लाभप्रद विधि नहीं है। उन्होंने ईश्वर, उसकी उपासना तथा ईश्वर प्राप्ति आदि विषयों का अध्ययन, मनन व अनुसंधान किया। वह पक्षपात रहित थे और सत्य का बोध होने पर असत्य का त्याग कर देते थे। उनकी यह प्रवृत्ति ही उन्हें विद्या के क्षेत्र में शीर्ष स्थान पर ले गई। वह आजीवन ब्रह्मचारी तथा शारीरिक बल से भी युक्त थे। उनकी बुद्धि व मेधा सत्य व ज्ञान को ग्रहण करने में सक्षम व प्रबल थी। जीवन के सभी प्रलोभनों यथा सुख, धन संचय तथा यश आदि से भी वह मुक्त थे। वह विनम्र तथा विद्वानों के भक्त व प्रशंसक थे। जिस विद्वान से उन्हें कोई भी गुण व ज्ञान प्राप्त होता था उसे वह सहर्ष व विनीत भाव से प्राप्त करते थे। इस प्रवृत्ति के कारण वह विद्या की प्राप्ति तथा साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त होते रहे।
योगाभ्यास व साधना से उन्होंने समाधि की अवस्था प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार किया था। जीवन भर विद्या प्राप्ति के लिये सक्रिय रहने और मथुरा में वेद वेदांगों के आचार्य व योग्य गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी को प्राप्त होकर उन्होंने वेद विद्या सहित ईश्वर व आत्मा विषयक निभ्र्रान्त ज्ञान को प्राप्त किया था। इसके परिणाम से उनका जीवन लक्ष्य तक पहुंचा था। इस अवस्था को प्राप्त कर यदि वह चाहते तो मोक्ष प्राप्त कर सकते थे। परन्तु देश व समाज में अविद्या व अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्पराओं, पाखण्डों, मिथ्या मान्तयाओं का प्रचार, धर्मान्तरण, वैदिक धर्म व संस्कृति के निरन्तर हो रहे ह्रास व क्षय तथा मनुष्यों पर हो रहे अत्याचार, अन्याय व शोषण को वह सहन नहीं कर सके। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने संसार के सभी मनुष्यों के लिये सुखदायक व कल्याणकारी विद्या, वेदविद्या, के प्रचार व प्रसार का निर्णय लिया। इस कार्य में वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा होने के साथ विश्व के सभी मनुष्यों का कल्याण निहित था। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने वेदों के उद्धार व प्रचार के कार्य को अपनाया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने देश के अनेक स्थानों पर जाकर सत्योपदेश किये। धर्म व अधर्म के सत्यस्वरूप से लोगों को परिचित कराने का प्रयत्न किया। मत-मतान्तरों की अविद्या का भी वह उल्लेख करते थे और सत्य विद्या के ग्रन्थ वेदों को अपनाने के साथ ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का प्रचार कर उसे अपनाने का आग्रह करते थे।
ऋषि दयानन्द अज्ञान, अविद्या, असत्य, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं तथा सभी सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिये सत्य का प्रचार करते थे। शिक्षित लोग उनके विचारों के मर्म को जानकर उनसे प्रभावित होते थे। वह उन्हें सहयोग करते थे। लोगों की प्रेरणा से ही ऋषि ने वैदिक मान्यताओं का प्रकाश करने वाला तथा मत-मतान्तरों की अविद्या का परिचय करने व उनका निवारण करने वाला विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” लिखा। लोगों की ही प्रेरणा व प्रार्थना पर उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की जो एक संस्था व मत-सम्प्रदाय न होकर वेद प्रचार कर अविद्या व असत्य को दूर करने का आन्दोलन है। ऋषि दयानन्द ने प्रतिपक्षी विधर्मी आचार्यों व विद्वानों से सत्य के निर्णय हेतु शास्त्रार्थ भी किये व उन सभी में वह सत्य को स्थापित करने में सफल होने के कारण विजयी हुए। काशी में भी उन्होंने ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करने की परम्परा पर 16 नवम्बर, 1869 को शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में भी वह मूर्तिपूजा को वेदविरुद्ध सिद्ध करने में सफल हुए थे। उनके प्रतिपक्षी 30 से अधिक विद्वान वेदों में मूर्ति को माध्यम बनाकर उसकी पूजा करने का कोई संकेत व विधान दिखा नहीं सके थे। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में सभी प्रकार के अन्धविश्वासों व पाखण्डों सहित मिथ्या सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किये व सत्य का प्रकाश किया। सत्यार्थप्रकाश के ग्यारह से चतुर्दश समुल्लास में उनके इन प्रयत्नों को देखा जा सकता है। अपने जीवन काल में अन्धविश्वासों के खण्डन तथा वैदिक मान्यताओं की सत्यता का मण्डन करने तथा किसी विरोधी से कोई चुनौती न मिलने के कारण ऋषि दयानन्द अपने प्रयत्नों में सफल हुए हैं। उन्होंने जो प्रचार व खण्डन-मण्डन का कार्य किया वह एक कुशल चिकित्सक की भांति रुग्ण समाज को स्वस्थ करने के लिये किया था। उनका इस कार्य को करने के पीछे अपना कोई निजी प्रयोजन नहीं था। मानव मात्र के हित, सुख व कल्याण के लिये ही वह वेद प्रचार सहित असत्य के खण्डन व सत्य के मण्डन के कार्य में प्रवृत्त हुए थे।
ऋषि दयानन्द के विरोधी षडयन्त्रकारियों ने उनको लगभग 18 बार विष दिया था। वह यौगिक क्रियाओं से विष के प्रभाव को नष्ट कर देते थे परन्तु जोधपुर में सितम्बर, 1883 में दिये गये विष का प्रभाव दूर न हो सका जिसके परिणामस्वरूप अजमेर में दीपावली के दिन दिनांक 30-10-1883 को 58-59 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। मनुष्य का शरीर नाशवान होता है। ऋषि दयानन्द से पूर्व उत्पन्न सभी महान व साधारण लोग भी मृत्यु को प्राप्त हुए थे और उनके बाद भी हो रहे हैं। यह जन्म व मृत्यु संसार का शांश्वत नियम हैं। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य ही होती है। ऋषि दयानन्द अपने जीवन में विश्व के कल्याण व अविद्या दूर करने का जो कार्य कर रहे थे वह उनको विष दिये जाने व उनकी मृत्यु होने के कारण बाधित हुआ। इस कारण मानवता की जो हानि हुई है, उससे उनकी मृत्यु हमारे लिये दुःखद सिद्ध हुई। उनके बाद भी उनके प्रमुख शिष्यों ने उनके कार्य को तीव्र गति से बढ़ाया। आजादी के बाद व्यवस्था परिवर्तन व नये नियमों के कारण आर्यसमाज के प्रचार में शिथिलता आई है। आज भी ऋषि दयानन्द द्वारा बताये और आर्यसमाज द्वारा किये गये व किये जा रहे समस्त कार्य प्रासंगिक है। आज भी संसार में अविद्या छाई हुई है। संसार दुःखों से अशान्त व भय से युक्त है। मनुष्य व संसार का भविष्य अनिश्चित है। मनुष्य समाज जो सब ईश्वर के पुत्र व पुत्रियां हैं, अनेक मत व समुदायों में बंटे जिसका कारण अविद्या है और जिससे वह जन्म के लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति में सफल नहीं हो पा रहे हैं। अतः विश्व में सुख व शान्ति की स्थापना तथा आत्मा की उन्नति व जीवात्मा के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिये सबको वेद मार्ग पर लौटना ही होगा। इसी से विश्व के सभी मनुष्य आपस में जुड़ेगे और परस्पर विश्व बन्धुत्सव व वसुधैव कुटुम्बकम् को सफल करेंगे।
हमने लेख में यह बताने का प्रयास किया है कि ऋषि दयानन्द ने विश्व, देश, समाज तथा मत-मतान्तरों की अविद्या दूर करने का कार्य किया। यह कार्य मनुष्य मात्र की अविद्या दूर कर विश्व में विश्व बन्धुत्व तथा वसुधैव कुटुम्बकम् को सफल करने का प्रयास था। महर्षि दयानन्द विश्व के सभी मनुष्य के मित्र व हित साधक थे। सभी को उनके यथार्थ स्वरूप को जानकर ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेदों को ग्रहण करना चाहिये। इसी से विश्व में मानवता सुरक्षित रह सकती है। ऋषि दयानन्द जी को सादर नमन कर लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
smelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged mar